११३ सेकंड् की रेड लाइट 

रेड लाइट किसे पसंद होती हैं, मुझे भी नहीं ! ख़ासकर ऑफ़िस जाते समय जब मैं लेट हो रहा होता हूँ तब तो बिलकुल भी नहीं। ‘रेड लाइट पर फँसा हुआ हूँ’ अब तो यह कहना भी बहाने जैसा ही लगता है, पर सच तो यह है की मैं रोज़ इस रेड लाइट के चक्कर में ५-१० मिनट ऑफ़िस देर से पहुँचता हूँ। अब तो यह ट्रैफ़िक लाइट मुझे जीवन में निरंतर कठिनयों की तरह लगती है, मुश्किलों को और मुश्किल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। ख़ैर मुद्दा रेड लाइट का नहीं मेरे लेट होने का है।सुबह योगा के चक्कर में आज फिर मैं ऑफ़िस के लिए लेट हो गया, और रास्ते में गले पड़ गयी तमाम रेड लाइट, ऐसे जैसे मुझे देर से निकलने के लिए चिढ़ा रही हों। पहले तो मैं हर रेड लाइट पर हॉर्न बजाता रहा और क़िस्मत को कोसता रहा, फिर मैंने इसको ज़िंदगी की हर उस ना सुलझने वाली गुत्थी की तरह ही स्वीकार कर लिया और अपना ध्यान रेडीओ पर चल रहे बॉलीवुड गाने में लगा दिया। क्यूँकि ऑफ़िस लेट पहुँच तो दोपहर के खाने तक का समय काम में कैसे निकल गया पता ही नही चला। भूक भी ज़ोर से लग रही थी तो सोचा डेस्क पर बैठकर काम करते करते ही खाना खा लेता हूँ। दब्बा खोलकर पहला कौर मूह की तरह बढ़ाया ही था की मोबाइल फ़ोन पर मेसिज की रिंग बज उठी। फिर से बॉस का कोई काम आ गया होगा, यह सोच और मन को मारते हुए मैंने मेसिज पढ़ने के लिए फ़ोन उठाया।मेसिज बॉस का नहीं श्रुति का था।मैं भौचक्का रह गया, ८ साल में यह पहली बार है की मेरे और श्रुति के बीच में कोई बात हुई हो।यह सोंचकर की ज़रूर कोई काम होगा, मैंने एक औपचारिकता भरा जवाब वापस भेज दिया। जवाब तो मैंने भेज दिया लेकिन मेरे दिमाग़ में अब तरह तरह के ख़याल आने लगे, और मैं श्रुति के ८ साल बाद अचानक मेसिज भेजने के कारण खोजने लगा।खाना डेस्क पर पड़ा ठंडा होने लगा और मेरी भूक जिससे मैं सिर्फ़ १० मिनट पहले तक तड़प रहा था वो गधे के सिर पर सींग की तरह ग़ायब हो गयी थी।

 एक घंटे जितने लम्बे पाँच मिनट के बाद श्रुति का वापस मेसिज आया – “मैं चाणक्यपुरी के एक होटेल में ठहरी हूँ, और २ कल शाम तक के लिए दिल्ली में हूँ, मिल सकते हैं क्या?”। आख़िरी के तीन शब्दों ने मेरे दिल की धड़कनें तेज़ कर दी – “मिल सकते हैं क्या?”। ख़ुद से मैंने पूँछा की आख़िर ८ साल के बाद वो अचानक मुझसे मिलना क्यूँ चाहती है? मैंने घड़ी की और देखा, दोपहर के तीन बज रहे थे और बहुत सारा ऑफ़िस का काम पड़ा हुआ था। अगर मैं लग कर भी काम करता तो आठ बजे से पहले तो काम ख़त्म करना तक़रीबन नामुमकिन जैसा ही था। उसके बाद अगर चाणक्यपुरी गया तो देर रात हो जाएगी, अभी इसी उधेड़बुन में था की मैंने सामने से सुदेश को आता देखा। बॉस को अपनी ओर आते देख मैंने फटाफट फ़ोन लॉक करके, खाना एक तरफ़ किया और लैप्टॉप पर काम करने लगा। 

 सुदेश मेरे पास कर बोले – “अर्रे तुमने अभी तक खाना क्यूँ नहीं खाया?” मेरे मुँह से सहसा ही निकल पड़ा – “बस मन नहीं था, तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही है!” सुदेश ने आवाज़ में चिंता जताते हुए बोला, “सब ठीक तो है? तुम सुबह भी देर से ऑफ़िस आए थे” ये सुनते ही मैंने रेड लाइट के प्रति अपनी चिढ़न को सुदेश के सामने यह कहकर निकल दिया की “हाँ सुबह से ही कुछ बुखार सा लग रहा था, लेकिन ऑफ़िस आना पड़ा क्यूँकि काम बहुत था।

 सुदेश ने मेरा लैप्टॉप ज़ोर से बंद किया और कान के पास आ कर बोला “बाबू मोशाए, तबियत ठीक रखोगे तब तो काम कर पाओगे। डॉक्टर को दिखाओ, घर जाओ और आराम करो, मैं अभी अपने ड्राइवर को साथ में भेज देता हूँ।”श्रुति के मेसिज को आए पंदरह मिनट से ऊपर हो चुके थे, हड़बड़ाते हुए मैंने सुदेश को बोला “नहीं नहीं मैं गाड़ी लाया हूँ, ख़ुद ही घर चला जाऊँगा।” सुदेश इस बीच अपने ड्राइवर को फ़ोन लगा चुका था, उसने फ़ोन काटते हुए पूँछा “आर यू श्योर?”, मैंने उसको भरोसा दिलाते हुए कहा “हाँ हाँ, बॉस घर जाकर सो जाता हूँ, कल तक ठीक हो जाऊँगा।” सुदेश मुस्कुराते हुए “टेक केयर!” कह कर अपने कमरे की तरफ़ मूड गया।

 उसके जाते ही मैंने झट से फ़ोन उठाया और श्रुति को वापस मेसिज भेजा “हाँ क्यूँ नहीं!” भेजते ही मुझे लगने लगा कि कहीं उसको यह कहने में मैंने ज़्यादा उतावलापन तो नहीं दिखा दिया? उसको क्या लगेगा? कहीं वो यह तो नहीं सोंच बैठेगी की अब तक मैं उसको भूल नहीं पाया। क्या मुझे यह कहना चाहिए था “हाँ क्यूँ नहीं, लेकिन आज मैं बहुत बिज़ी हूँ, कल देख सकते हैं।” मैंने ऐसे ही कई सवालों के बीच उठकर मैंने अपना बैग बंद किया और गाड़ी की चाभी उठाकर तेज़ क़दमों से ऑफ़िस के बाहर की ओर बढ़ा। मैं नहीं चाहता था की कोई और मुझे रोककर जल्दी निकालने का कारण पूछे और मुझे फिर झूट बोलना पड़े। मैं जल्द से जल्द ऑफ़िस से निकलना चाहता था, लिफ़्ट आने में कुछ समय ले रही थी तो मैं सात मंज़िल सीढ़ी से ही उतर कर पार्किंग में आ गया। हाँफते हुए मैंने दरवाज़ा खोला और बैग पटकर गाड़ी में बैठ गया। बंद गाड़ी के सन्नाटे में मुझे अपनी बढ़ी हुई दिल की धड़कन का एहसास हुआ। मैं बुदबुदाते हुए ख़ुद से बोला – “उफ़्फ़, आठ साल बाद अब भी”

 गाड़ी स्टार्ट करके मैंने चाणक्यपुरी की ओर बढ़ाई ये सोंचकर की जब भी श्रुति का जवाब आएगा, तब मैं झट से बिना ट्रैफ़िक या रेड लाइट में फँसे उसके होटेल पहुँच जाऊँगा। दोपहर का समय और ख़ाली सड़क होने के चलते मैं ३० मिनट में ही चाणक्यपुरी पहुँच गया। श्रुति के होटेल के पास की ही एक कॉफ़ी शाप में जाकर मैं बैठ गया, और उसके अगले मेसिज का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। मेरे भेजे हुए जवाब को अब क़रीब एक घंटा होने को आया था। मुझे जल्दबाज़ी में मिलने के लिए हाँ नहीं करना चाहिए था, यह सोंच हो रहा था की उसका मेसिज आ गया “मैं थोड़ा लेट हो जाऊँगी, साढ़े दस के बाद मिलें, चलेगा क्या?” मैंने घड़ी की तरह देखा, अभी शाम के साढ़े चार बज रहे थे, साढ़े दस बजने में अभी छह घंटे बचे थे, इतने लम्बे इंतज़ार के लिए मैं तैयार नहीं था। चाणक्यपुरी इतनी जल्दी आ जाने की बेवक़ूफ़ी पर झल्लाते हुए मैंने वापस जवाब दिया “ओह, शाम को मेरे घर पर पार्टी है, बहुत सारे क्लोज़ फ़्रेंड्ज़ आ रहे हैं, आज रात का तो नहीं हो पाएगा”। रात की पार्टी का झूँट और उसपर क्लोज़ फ़्रेंड्ज़ का तड़का मैंने जानबूझ कर लगाया था। एक बार फिर जवाब देने के बाद मुझे ख़ुद पर बेहद ग़ुस्सा आया। यह जल्दबाज़ी, उतावलापन और बोलने के बाद सोंचने की आदत मेरी अब तक नहीं गयी, आठ साल पहले भी मेरी यही आदत हमारे रिश्ते को ले डूबी थी।

 “ओह, दैट्स सैड। कैन आइ ऑल्सो जोईन दा पार्टी टुनाइट? 😉”, श्रुति का वापस मेसिज आया।यह किस तरह कि बात थी, आठ साल बाद मेसिज में स्माइली बनाकर और ऐसी बातें लिखकर, श्रुति का कूल और केयर फ़्री बना मुझे बिलकुल पसंद नहीं आ रहा था। आख़िर वो अपने आप को समझती क्या है, की कभी भी फ़ोन कर देगी और ऐसे व्यवहार करेगी की जैसे कुछ हुआ ही ना हो। पाँच मिनट के बेवजह ग़ुस्से के बाद जब मैंने थोड़ा शांत हुआ तो मुझे अपनी छोटी सोंच पर तरस आया। क्यूँ मैं पुरानी बातों की दिल से लगाकर बैठा हूँ। दिल को तस्सलि दे, मैंने उसको वापस मेसिज भेजा “हाँ हाँ क्यूँ नहीं, यू आर मोर देन वेल्कम”। यह लिख कर मैंने वेटर से कॉफ़ी का बिल लाने को बोला। क्रेडिट कार्ड से बिल दे ही रहा था की फ़ोन वापस मेसिज टोन से बज उठा। “थैंकस फ़ोर दा ऑफ़र, बट आइ शैल गिव ईंट आ स्किप”। श्रुति के इस मेसिज से मैं हल्का सा चिढ़ गया, उसके आने की आशा तो मैं वैसे भी नहीं कर रहा था, फिर भी ऐसा मेसिज मुझे पसंद नहीं आया। मैं अपना बैग उठाकर गाड़ी की पार्किंग की तरफ़ बढ़ा और इसी बीच एक और मेसिज आया “वैसे कौन हैं ये क्लोज़ फ़्रेंड्ज़?”। श्रुति की मुझमें ऐसी दिलचस्पी पढ़कर मेरे चेहरे पे मुस्कान आ गयी, और जवाब मैंने लिखा “हैं कुछ गहरे दोस्त”, अपने जवाब पर मेरी हँसी छूट पड़ी, ऐसी बातें तो हम कॉलेज में किया करते थे।

श्रुति – “क्या मैं उनको जानती हूँ”

मैं – “नहीं”

श्रुति – “बिज़ी हो?”

मैं – “नहीं”

श्रुति – “तो फिर नहीं के आगे कुछ बोलोगे”

मैं – “अच्छा नहीं ‘नहीं’ नहीं बोलूँगा”

श्रुति – “एक नहीं के बदले ३ नहीं, ये तो तलाक़ तलाक़ तलाक़ की तरह हो गया”

मैं गाड़ी में आकर बैठ चुका था, और इस आख़िरी मेसिज का जवाब मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था, मैंने गाड़ी स्टार्ट करके फ़र्स्ट गियर में डाली और चल पड़ा। पहले ही गोल चक्कर पर मुझे रेड लाइट मिल गयी, मैंने झट से फ़ोन उठाया और लिखा, “वैसे दिल्ली में कैसे?” लाइट ग्रीन होने में अभी पाँच सेकंड बचे थे की उसका जवाब आया “आइ एम गेटिंग आ डिवोर्स!” यह पढ़कर मुझे धक्का सा लगा। शायद वो मेरे साथ होती तो कभी ऐसा नहीं होता, उसका पति शरद था ही कमीना, मुझे कभी पसंद नहीं था, अच्छा हुआ श्रुति को उससे छुटकारा मिल गया। मुझे अपने मन में आए ऐस गंदे ख़याल पे घिन्न आयी, मैं बड्डपन दिखाना चाहता था लेकिन श्रुति से बिछड़ने की चोट इतनी गहरी थी की मैंने अपने इन ख़यालों को रोक नहीं पा रहा था। रिंग रोड पर आने से पहले अब एक ही रेड लाइट बची थी, उसके बाद अगले पाँच किलोमीटर तक, जवाब देने का मौक़ा नहीं मिलेगा, मैं जब सिग्नल तक पहुँचा सिर्फ़ बीस सेकंड बचे थे ग्रीन लाइट होने में, मैंने फ़ोन उठाकर लिखा “ओह, सॉरी टू हेयर डेट!” यह लिख कर भेजा ही था की लाइट फिर से ग्रीन हो गयी और मैं मोड़ लेकर रिंग रोड पर आ गया। रिंग रोड पर तो रुकने का तो कोई सिग्नल ही नहीं है, अगर मैं अंदर के रास्ते आ जाता तो आराम से कई सारी रेड लाइट पर मेसिज कर सकता था। रेड लाइट के प्रति मेरे बदलते रवैए पर मुझे हँसी आ गयी। 

 पंद्रह मिनट के बाद रिंग रोड छोड़ मैं धौला कुआँ की तरह मुड़ा, मुझे पता था की वह की रेड लाइट बहुत लम्बी होती है, मैं मन ही मन मनाने लगा कि काश अगला सिग्नल भी रेड ही हो। जैसे ही मैं सिग्नल तक पहुँचा, रेड लाइट देख कर मुझे बहुत तस्सली हुई, लाइट के नीचे सिग्नल बदलने का समय दिखा रहा था ११३ सेकंड। मैंने राहत की साँस ली और फ़ोन उठाया। श्रुति के छह मेसजेज़ आ गए थे इतनी देर में।

“मुझे अपनी फ़िकर नहीं है, आइ हैव लेट मम्मी पापा डाउन। उनको लगता है की मैं ग़लत हूँ और शरद सही”

“कैसे बताऊँ उनको की नहीं चला सकती थी मैं अब, वो सब जो मुझे कॉलेज में लगता था की मैं करना चाहती हूँ, शरद को हर उस चीज़ से प्रॉब्लम थी”

“मैंने बहुत कोशिश की, दुःख की बात यह है की सब शरद की तरफ़ हैं, मेरे अपने दोस्त भी”

“बहुत अकेला महसूस करती हूँ कभी कभी, कल दिल्ली आयी तो श्रद्धा ने बताया की तुम भी यहीं हो”

“अर्रे तुम ऑफ़िस में होगे ना, आइ मस्ट बी बोदेरिंग यू!”

“बिज़ी हो तो बाद में मेसिज करती हूँ”

उसका आख़िरी मेसिज चार मिनट पहले का था, “नहीं नहीं मैं बिज़ी नहीं हूँ, ऑफ़िस में एक मीटिंग चल रही थी, अभी ख़त्म हुई। आइ डोंट थिंक आंटी अंकल आर बीइंग फ़ेर टू यू”, मैंने वापस मेसिज किया। लाइट ग्रीन होने में अभी १०० सेकंड बचे थे। मैंने एक और मेसिज भेजा “बी आ स्ट्रोंग गर्ल दैट यू आर”।

अस्सी सेकंड पर उसका फिर मेसिज आया, “आइ वॉंट टू बी स्ट्रोंग, लेकिन अब अकेले नहीं कर सकती, तुम्हारे घर पार्टी ना होती तो तुम्हें मिलकर बहुत कुछ और बताती, और कल मैं कोर्ट से निकलकर सीधे ऐयरपोर्ट चली जाऊँगी”, यह पढ़कर मुझे अपने फ़िज़ूल के झूँठ पर फिर से ग़ुस्सा आया। 

६३ सेकंड – श्रुति – “तुम काम से मुंबई आते हो?”

५७ सेकंड – मैं – “हाँ कभी कभी, अगली बार ज़रूर मिलूँगा तुमसे, तुम चिंता मत करो, यू कैन कॉल मी एनी टाइम”

इस बातचीत से मेरा दिल बहुत भारी हो चला था, लग रहा था की बस चाणक्यपुरी वापस जाकर उसको बाहों में भर लू, और तब तक बैठा रहूँ, जब तक उसको यह ना लगे की सब ठीक है। एक एक सेकंड मुझे सदी की तरह लग रहा था, इस रेड लाइट के बाद मेरे घर तक एक भी रेड लाइट नहीं थी, मुझे जो कहना था, अभी कहना था। अगले बीस सेकंड तक उसका कोई जवाब नहीं आया। कुछ देर इंतज़ार करने के बाद मैंने वापस लिखा

३३ सेकंड – मैं – “लेकिन तुमको मेरी याद कैसे आ गयी”, मेसिज भेजने से पहले दोबारा पढ़ा और ‘लेकिन’ हटा कर भेज दिया।

२० सेकंड – श्रुति – “कल श्रद्धा ने तुम्हारा नाम लिया, तो लगा कि शायद मेरी बात सिर्फ़ सुन लेने की मेहरबानी तो सब के बीच में सिर्फ़ तुम कर सकते हो”

यह पढ़कर मेरी दिल की धड़कन वापस से तेज़ हो चली थी, क्या अब भी कुछ बचा है हमारे बीच, ट्रैफ़िक सिग्नल की घड़ी धीरे धीरे ग्रीन की तरफ़ बढ़ रही थी, जिस रेड लाइट को मैं सुबह कोस रहा था, अब मैं मना रहा था की ये ट्रैफ़िक बॉस ऐसे ही रुका रहे और मैं श्रुति से बात करता रहूँ। कई मेसजेज़ लिखने और मिटाने के बीच उसका एक और मेसिज आया “मेहरबानी शब्द मैंने लिख दिया लेकिन उसको प्लीज़ नेगेटिव मत लेना”, ये पढ़ मेरी आखें भर आयी, आज भी उसको इस बात का डर था की कहीं मैं उसको ग़लत ना समझ लूँ। आठ साल पहले का मेरा तेज़ मिज़ाज और बात का बतंगड बनाना आज भी उसके ज़हन में है। अपनी करी हर एक ग़लती को मैंने आठ सालों में एक एक करके धोया था, सब कुछ वापस मेरे सामने जस का तस आकर के खड़ा था।

मैंने श्रुति को मेसिज किया – “आइ ऐम देयर फ़ोर यू!” और लाइट ग्रीन हो गयी।

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